इस्लाम धर्म में रमजान के महीने का महत्व बताते हुए कहा गया है, इस महीने में की गई इबादत से अल्लाह खुश होते हैं और रोजा रखकर मांगी गई हर दुआ कुबूल होती है। ऐसा विश्वास है, अन्य दिनों के मुकाबले रमजान में की गई इबादत का फल 70 गुना अधिक होता है। रमजान के रोजे 29 या 30 दिनों के होते है। इस्लाम धर्म में रोजा रखने के लिए सहरी खाना (रात के आखिरी हिस्से में कुछ खा-पी लेना) मसनून है और हदीस शरीफ में सहरी की बड़ी फजीलत आई है। आप सल्ल. का इरशाद है कि यहूद-नसारा और मुसलमानों में यही फर्क है कि वह सहरी नहीं खाते और मुसलमान खाते है। रोजे-सहरी के सदके में ही पूरे रमजान माह में अल्लाह की ओर से हर चीज मे बरकत पैदा कर दी जाती है।
रमजान का महीना बड़ी रहमतों और बरकतों वाला महीना है इस महीने का मुस्लमानों को साल भर बेसब्री से इंतेजार रहता है। यह महीना शाबान के महीने के बाद आता है जब रमजान शरीफ का चाँद नजर आता है उस वक्त मुस्लामानों के चेहरे पर एक खास चमक खुशी बनकर आ जाती है। ये इंसान को तकबा और परहेजगारी सिखाता है। रोजे का मतलब सिर्फ भुखे प्यासे रहकर अल्लाह की इबादत करना नहीं है वल्कि रोजा इंसान को हर उस बुरे काम से रोकता है जो उसे गुनाह की तरफ ले जाता हैं। रोजा इंसान को सब्र और शुक्र करना भी सिखाता हैं। जो इंसान साल भार पेट भर के खाना खाता है वो जब इस एक महिने में खाने से दूर रहकर अल्लाह की दी नेमतों की अमियत भी समझ पाता है। जो गरीब लोग साल भार पेट भर कर खाना नहीं खा पाते है इंसान उसके दर्द को भी समझ पाता है।
रोजा सिर्फ खाने से परहेज का नहीं होता है बाल्कि इंसान पुरे शरीर का रोजा होता है। रोजा इंसान को सिखाता है वो अपने हाथों से कोई बुरा काम ना करें। आपने कदमों को किसी बुरें राह की तरफ न बढ़ाएं। अपनी आँखों से कोई बुराई न देखे ना ही बुराई का साथ दें। अपने दिल को भी हर बुराई से पाक रखें। तब ही रोजा सही मायने में मुकमल होता है।
मुस्लमान पुरें साल रामजान के आने का इंतजार करते है। क्योंकि इस्लाम में इस महिने की कई फजीलत बयान की गई हैं। इस महिने को अल्लाह का महिना करार दिया गया है। ये मुसलमान के लिए अल्लाह का दिया एक तोफा हैं। क्योंकि इस महिने की हर इबादत का 70 गुना सबाव अता किया जाता है। इस महिने की इतनी फजीलत हैं अगर इंसान को इसका पता चल जाए तो वो चाहें पुरें साल ही रमजान का महिना हों।
इस्लाम में रमजान का बहुत ज्यादा महत्व हैं। इस्लाम धर्म में रमजान के महीने की बहुत फजीलत बताई गई हैं।
इस महीने की गई इबादत से अल्लाह खुश होते है। ये अल्लाह पाक का महीना करार दिया गया हैं। रोजा रखकर मांगी हर दुआ कुबूल होती हैं। ऐसा माना जाता है, कि अन्य दिनों के मुकाबले में रमजान में की गई इबादत का सबाव 70 गुना अधिक मिलता है।
रोजा अरबी जुबान का एक शब्द है, जिसके मायने होते है। रोक देना या रूक जाना। मतलब रोजे के दौरान कुछ खाने-पीने के अलावा हर उस काम से खुद को दूर कर लेना जो इंसान को गुनाह की तरफ माईल करती हो। और जिसको कुरान और हादिस में गुनाह का सवब बताया गया हो। उससे रूक जाना को कहा गया हो।
इसकी अहमियत को खुलकर बयान किया गया है। रोजा रहने का मतलब सिर्फ भूखा रहना नहीं हैं। बल्कि ये जिस्म के हर अंग का और रूहानी का रोजा होता है।
रोजा न सिर्फ खाने-पीने से परहेज करने का नाम है। ये इंसान को रूहानी कुबाते अता करता है जिससे इंसान अपने जिस्म को और हर मुसीबत से बचने के लिए मजबूत कर पता है। रोजा इंसान को हर हाल में खुश रहना और अल्लाह की रजा में राजी रहना सिखाता है। रोजा हर मुस्बित पर सब्र करना सिखाता है। ये इंसान को हर हाल में ईमान पर इस्तेकामत के साथ चलना सिखाता है।
रमजान अरबी माह का नाम है। ये इस्लामिक साल का नौवा महीना होता है। यह इस्लाम के पांच अरकानों में से एक है। तौहिद, नमाज, रोजा, जकात और हज। ये पांच अरकान इस्लाम के मानने वालों पर फर्ज है। यानी सभी मुसलमानों को इसको मानना इसको अपनी जिन्दगी में अमल में लाना जरूरी हैं। इस के बिना ईमान मुक्कमल नहीं है। इस लिए हर मुसलमान पांच वक्त की नमाज के अलावा एक महीने के रोजे रखना अपना फर्ज समझता है। और इसे बड़ी अकिदत और खुलुसे दिल के साथ पुरा करता हैं।

रमजान में तरावीह की अहमियत
रमजान महीने कुरान शरीफ की तिलाबत की भी बहुत फजीलत बयान की गई हैं। रमजान इस्लाम का वह महीना होता है जिसमें जहन्नम के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं। और जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं। माहे रमजान में ही अल्लाह पाक ने पैगंबर मुहम्मद सा. पर कुरान नाजील किया था। इसलिए इस महीने में कुरान को मुक्कमल सुनने के लिए एक खास नमाज का इंतजाम होता है। जिसे इस्लाम में तरावीह कहा जाता हैं। तरावीह की नमाज इंसा की नमाज यानी रात की आखरी नमाज के बाद पढ़ी जाती है।
रमजान में तरावीह का एहतमाम करना लाजिमी होता है। तरावीह की 20 रकात होती हैं। जिसमें 27 दिनों में पुरा मुक्कमल कुरान पढ़ा और सुना जाता हैं। फिर उसके बाद कुरान में मौजूद अहकाम को बता कर उसपर अमल करने की ताकिद की जाती हैं। और बताया जाता कैसे इंसान कुरान और हादिस पर अमल करके अपनी जिन्दगी को बहेतर बना सकता हैं। और बुरे काम से अपने आपकों महफूज रख सकता हैं।

रमजान में जकात की अहमियत
रमजान के महीने में ही हर मुसलमान पर जकात फर्ज की गई है। यानी रमजान महीने में हर आर्थिक रूप से संपन्न मुसलमान पर फर्ज किया गया है कि वह अपने जमा माल में से 2.5 प्रतिशत जकात के रूप में समाज के गरीब और अभावग्रस्त लोगों को मदद के रूप में दे। इस्लाम में जकात देना का हुक्म हैं। लेकिन हर मुसलमान जकात के इन पैसों को हर गरीब और परेशान हाल इंसान को दे सकता हैं। इसमें कही भी ये नहीं कहा गया हैं। सिर्फ अपने धर्म के लोगों की ही मदद की जाए। बल्कि ये हुक्म हैं जो परेशान इंसान आपके सामने मौजूद हैं चाहे आप उसे जानते है या नहीं जानते सबकी मदद की जाएं। जकात भी इस्लाम के पांच आरकानों में से एक है। इस्लाम में इसका हुक्म इसलिए है। ताकि दुनिया कोई भी इंसान अल्लाह की नेमतों से महरूम न रहें। सबकों बराबर का हक मिलें। ऐसा न हो किसी के पास सब कुछ हो और कोई खाली हाथ रह जाएं। जकात किसी के पास साल भर में मौजूद धन के अलावा 7.5 तोला सोना और 52.5 तोला चांदी होने पर ही दिया जाती है। रमजान के महीने में जकात के अलावा फितरा और खैरात का भी हुक्म है जो भी गरीबों की मदद करने का एक तरीका होता हैं।

रमजान में एतकाफ और शब ए कद्र का महत्व
रमजान के महीने में आखरी 10 दिनों में एक खास इबादत की जाती है। जिसे एतकाफ कहा जाता है। इस्लाम में माहे रमजान को तीन भागों में बटा गया है। जिसमें सबसे फजीलत भरा अशरा एतकाफ हैं। यह अशरा रमजान के अंतिम 10 दिनों यानी 21 वें दिन से 29 या 30 वें दिन का होता है। यह अशरा जहन्नम से निजात का अशरा कहलाता है। माहे रमजान में जो लोग एतकाफ करते है वो आखरी 10 दिनों के लिए मस्जिद में ही रहकर अल्लाह की इबादत करते है। ये लोग इस बीच दुनियावी हर काम से अपने आप को अलग कर लेते है। और तन्हाई में सिर्फ अल्लाह की इबादत करते हैं। ये लोग एतकाफ में अल्लाह की इबादात के साथ कुरान की तिलाबत करते है। साथ में सारी दुनिया के लोगों के लिए दुआ करते है। एतकाफ करने के लिए रोजेदार होना जरूरी होता है। एतकाफ का असल मकसद शब ए कद्र की तलाश है। जो माहें रमजान के आखरी दस दिनों में होती है। यह कद्र वाली रात होती है। जिसमें अल्लाह की इबादत करना हजार महीनों की इबादत से अफजल होती है।
शब ए कद्र आखरी दस दिनों में से पांच रातों में आती है। इसलिए मुसलमान इसे आखरी दस रातों में तलाश करता है। यह 21वीं रात 23वीं रात, 25वीं रात और 27वीं, या 29वीं रात में से एक होती है। एतकाफ इसी रात की तलाश के लिए किया जाता है। शब ए कद्र की एक रात की इबादत 83 साल की इबादत के बराबर होती है। इसलिए रमजान के महीने में एतकाफ और शब ए कद्र का बहुत महत्व हैं।