आज 17 अगस्त को नींद से जागने के अध्याय 9 राजविद्या योग श्लोक 28 29 को व्याख्या सहित हृदयंगम कीजिये

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै: |
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि
शब्दार्थ – शुभ-अशुभ-फलैः-शुभ और अशुभ परिणाम; एवम्-इस प्रकार; मोक्ष्यसे-तुम मुक्त हो जाओगे; कर्म-कर्म; बन्धनैः-बन्धन से; संन्यास-योग-स्वार्थ के त्याग से; युक्त-आत्मा-मन को मुझमें अनुरक्त करके; विमुक्तः-मुक्त होना; माम्-मुझे उपैष्यसि–प्राप्त होगे।
भावार्थ – 9.28 इस प्रकार सभी कार्य मुझे समर्पित करते हुए तुम शुभ और अशुभ फलों के बंधन से मुक्त रहोगे। इस वैराग्य द्वारा मन को मुझ में अनुरक्त कर तुम मुक्त होकर मेरे पास आ पाओगे।
व्याख्या- सभी कार्य दोषपूर्ण होते हैं, जैसे अग्नि धुएँ से ढकी होती है। जब हम धरती पर चलते है तब हम अनजाने में लाखों अणु जीवों को मारते हैं। अपने व्यावासायिक कार्यों के संबंध में यह कहना आवश्यक नहीं है कि हम कितनी सावधानी से अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं? अभी भी हम पर्यावरण को दूषित करने और दूसरों को दुखी करने में लगे रहते हैं। जहाँ तक कि यदि हम एक कटोरी दही का सेवन करते हैं तब भी हम उसमें व्याप्त जीवों को नष्ट करने का पाप अर्जित करते हैं। कुछ धर्मों के संत मुँह पर पट्टी बाँध कर अनायास अहिंसा को कम करने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इसे पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि हमारी श्वासों से भी इन जीवों का विनाश होता है।
कर्म के नियम के अंतर्गत हमें अपने कर्म फलों को संचित करना पड़ता है। पुण्य कर्म भी बंधन का कारण हैं क्योंकि वे जीवात्मा को अपने कर्मों का फल भोगने के लिए स्वर्ग जाने के लिए विवश करते हैं। इस प्रकार शुभ और अशुभ कर्मों का परिणाम निरन्तर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमना है। फिर भी श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में सभी कर्मों के कर्म फलों को नष्ट करने का सरल उपाय बताया है। उन्होंने ‘संन्यास योग’ शब्द प्रयोग किया है जिसका अर्थ स्वार्थ को त्यागना है। वे कहते हैं कि जब हम अपने कर्मों को भगवान के सुख के लिए समर्पित करते हैं तब हम शुभ और अशुभ परिणामों के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं जो अपने भीतर ऐसी चेतना विकसित कर लेते हैं उन्हें ‘योग युक्तात्मा’ कहा जाता है। ऐसे योगी जीवन मुक्त हो जाते हैं और नश्वर शरीर को छोड़ने पर उन्हें दिव्य शरीर और भगवान के दिव्य धाम में नित्य सेवा प्राप्त होती है।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्
शब्दार्थ – समः-समभाव से व्यवस्थित करना; अहम्-मैं; सर्व-भूतेषु-सभी जीवों को; न कोई नहीं; मे–मुझको; द्वेष्यः-द्वेष; अस्ति–हे; न-न तो; प्रियः-प्रिय; ये-जो; भजन्ति–प्रेमामयी भक्ति; तु-लेकिन; माम्-मुझको; भक्त्या-भक्ति से; मयि–मुझमें; ते-ऐसा व्यक्ति; तेषु-उनमें; च-भी; अपि-निश्चय ही; अहम्-मैं।
भावर्थ – 9.29 मैं समभाव से सभी जीवों के साथ व्यवहार करता हूँ न तो मैं किसी के साथ द्वेष करता हूँ और न ही पक्षपात करता हूँ लेकिन जो भक्त मेरी प्रेममयी भक्ति करते हैं, मैं उनके हृदय में और वे मेरे हृदय में निवास करते हैं।
व्याख्या हम अपने अंतर्बोध से विश्वास करते है कि यदि कोई भगवान है तो वह अवश्य न्यायी होगा क्योंकि कोई भी अन्यायी भगवान नहीं बन सकता। संसार में अन्याय से पीड़ित लोग यह कहते हैं-‘करोड़पति महोदय आप के पास धन की शक्ति है। तुम चाहे जो भी कर लो, भगवान ही हमारे विवाद का निर्णय करेगा। वह सब देख रहा है, तुम्हें अवश्य दण्ड देगा। तुम उसके प्रकोप से बच नहीं सकते।’ इस प्रकार के कथन यह नहीं दर्शाते कि ऐसे कथन कहने वाला व्यक्ति भगवान में दृढ़ विश्वास रखने वाला कोई संत होगा क्योंकि साधारण मनुष्य भी यह विश्वास करते हैं कि भगवान पूर्ण न्यायी है। किन्तु पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण के कथन यह संदेह उत्पन्न करते हैं कि भगवान अपने भक्त का पक्ष लेते हैं। जब सब कुछ कर्म के नियम के अधीन होता है तब फिर भगवान अपने भक्तों को इससे मुक्त क्यों करते हैं? क्या यह पक्षपात के दोष का लक्षण नहीं है?
श्रीकृष्ण ने इस विषय को स्पष्ट करना आवश्यक समझते हुए इस श्लोक का आरम्भ ‘समोऽहं’ शब्द से किया है जिसका अर्थ ‘नहीं’ है। ‘नहीं, नहीं, मैं सबके लिए समान हूँ किन्तु मेरा एक जैसा नियम है जिसके अन्तर्गत मैं अपनी कृपा बरसाता हूँ।” इस नियम की व्याख्या चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में की गयी है। “हे कुन्ती पुत्र! लोग जिस भाव से मेरे शरणागत होते है, मैं तदानुसार उन्हें प्रतिफल देता हूँ।” वर्षा का जल धरती पर सामान रूप से गिरता है। यदि उसकी बूंद किसी खेत पर पड़ती है तब वे अन्न में परिवर्तित हो जाती है यदि उसकी बूंदें रेगिस्तान की झाड़ी पर पड़ती है तब वह कांटेदार झाड़ी में परिवर्तित हो जाती है और जब ये बूंदें गंदे नाले में गिरती है तब गंदे पानी में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार वर्षा के जल की ओर से कोई पक्षपात नहीं किया जाता क्योंकि वह भूमि पर अपनी कृपा समान रूप से बरसाती हैं। वर्षा की बूंदों को विभिन्न प्रकार के परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता जोकि प्राप्त करने वाले की प्रकृति के अनुरूप होते हैं। समान रूप से यहाँ भगवान कहते हैं कि मैं सभी प्राणियों के साथ समान व्यवहार करता हूँ किन्तु फिर भी जो उनसे प्रेम नहीं करते वे उनकी कृपा से वंचित रहते हैं क्योंकि उनके अन्तःकरण अशुद्ध होते हैं। श्रीकृष्ण आगे अब भक्ति की शुद्धिकरण शक्ति को प्रकट करेंगे। क्रमशआगत दिवस में आगे रसास्वादन कीजिये
आप सभी की आत्मा में विराजित विश्वस्वरूप सच्चीदानंद परमपिता परमेश्वर श्रीकृष्ण को शत शत प्रणाम, गीता के अमृत प्रसंग आपके जीवन का कल्याण करेl