हर मां-बाप का एक सपना होता है कि वो अपनी प्यारी बेटी को अपनी आंखों के सामने दुल्हन बना हुआ देख सकें। एक बेटी का जब जन्म होता है तो सबसे ज्यादा खुशी पेरेंट्स को होती है। जन्म के बाद से ही मां-बाप अपनी प्यारी बेटी की शादी के सपने सजोने लगते है। और अपने अरमानों को पुरा करने के लिए दिन रात नहीं देखते है और महेन्त कर के पैसे जमा करने लगते है। ताकि बेटी की शादी अच्छे से कर पायें। और इन अरमानों के पुरा होने का जब वक्त आता है तो हमारे समाज में पहली दहेज रूपी कुप्रथा उनके सपनों के आगे आकर खड़ी हो जाती है।
अपनी बेटी की खुशियों के आगे ये मजबूर मां-बाप अपने आपको बेबस और असहाय महेसूस करते है। अपनी सारी जिन्दगी की जमा पूंजी अपनी बेटी की खुशियों को पुरा करने में लगा देते है। लेकिन फिर भी उनके हाथों क्या आता है? जब शादी का दिन आता है तो लडक़े वालों की बड़ी-बड़ी डिमांड की लिस्ट से मां-बाप की जिन्दगी में इतना ज्यादा टेंशन हो जाती है कि वो इस दिन ये भी भुल जाते है। आज ही का तो वो दिन है जिसका उन्होंने अपनी जिन्दगी में इतनी बैसवरी से इंतजार किया था। उनकी प्यारी बेटी दुल्हन बनी उनकी नजरों के सामने खड़ी है लेकिन ये मजबूर मां-बाप उसे एक जगह खड़े होकर जी भर कर देख भी नहीं सकते है। क्योंकि उन्हें बारातियों की फ्रिक है कहीं कुछ कमी न रह जाये। और कोई नाराज न हो जाएं।
कोई बता सकता है किसने इन मां-बाप को इतना मजबूर कर दिया है। अपनी जिन्दगी भर की जमा पूंजी लुटाने के बावजूद भी इनके हाथ में आगे चलकर क्या आता है? अपनी बेटी के आंसू या जख्मों से चुर-चुर हुई उसकी जिन्दगी या मौत के साये में बैखोफ सो चुकी अपनी बेटी की लाश?
कौन कहता है दुनिया ने बहुत तरक्की कर लीं है? और हमारी सोच चांद से आगे पहुंच चुकी है। लेकिन जब बारी हमारी खुद की आती है। तो हम जमीन में निन्यानबे प्रतिशत धसे नजर आते है। कोई नहीं बता सकता है दहेज रूपी इस कुप्रथा की शुरूआत किसने की थी। क्योंकि हर धर्म में तो दहेज के खिलाफ ही लिखा है। न तो दहेज लेना चाहिए न देना।
लेकिन आज हर धर्म के लोग बड़ा-चढ़ा कर दहेज की मांग कर रहे है। और लडक़ी के मां-बाप सर झुका कर दें रहे है। क्योंकि समाज के कुछ ठेकेदारों ने ये नियम ही आम कर दिया है। शादी में दहेज का लेना देना जरूरी है। लेकिन ये वो लोग है जो हम में से नहीं आते है। हम ये सोच सकते है ये हमारी हस्ती को मिटाने के लिए बने है। क्योंकि एक सच्चा ईमानदार और स्वाभिमानी इंसान दहेज जैसी कुप्रथा को कभी नहीं मानेगा।
आज हम समाज के हर वर्ग को देखते है तो किसी भी रूप में इस कुप्रथा को बढ़ावा देते हुए नजर आते है। कुछ लोग कहते बेटी के मां-बाप अपनी खुशी से अपनी बेटी को दहेज देते है। लेकिन ये सच नहीं है। कोई मना तो कर के देखे के हम दहेज नहीं लेगें फिर अगर बेटी के पेरेंट्स जीद करें तो बात बने हां दहेज लेना जरूरी था। सच तो ये ज्यादा से ज्यादा मामलों में लडक़े वाले फैरों से पहले या निकाह से पहले कहते है। दहेज नहीं देगों तो शादी नहीं होगी। बैमतलब की बाते है। जो समाज में फैलाई जा रही है के दहेज खुशी से दिया जाता है।
हमारे लिये तो ये समझना मुश्किल होता है कि लोग दूसरे का पैसा हजम कैसे कर लेते है? लेकिन इन लोगों सोच बाद में जाहिर होती जब ये दहेज लोभी लोग अपनी लालच में इतना हद से गुजर जाते है कि वो उस मासूम लडक़ी को जान से मार देते है जो कभी अपनी आंखों में हजारो सपने लिए उस घर में दुल्हन बनकर आई थी।
ये वही लडक़ी होती है जो अब तक दहेज की वजह से घरेलू हिंसा का शिकार हुई है। जिसको शादी के बाद से इतना ज्यादा प्रताडि़त किया गया की। या तो वो खुद तंग आकर मौत के अग्रोस में सौ गई या जुल्म कर-कर के बड़ी बेरहमी से उसे मार दिया गया। जिस तरह से दहेज को लेकर हो रही मौतों के मामले रोज हमारे सामने आते है। ये जाहिर करते है दहेज लोभी अपनी लालच में किस हद तक गुजर जाते है।
अगर अब भी हमारी आंखे पर पड़ी इस कुप्रथा की पट्टी नहीं हटेगी तो और आगे न जाने इस भारत देश कितनी होनहार और काबिल बेटियां इस कुप्रथा की बली चढ़ जायेगी। अभी भी वक्त है हमें नींद से जाग जाना चाहिए। और समाज के सब वर्गो को मिल कर इस कुप्रथा को जड़ से खतम करने की कोशिश करना चाहिए।
आज ये दुनिया का सबसे बड़ा सच है कि दहेज लेने और देने के मामले में हमारा समाज बेशर्मी की सारी हदें पार कर रहा है। जहां एक गरीब पिता अपनी बेटी की शादी करने के लिए इसलिए मजबूर है क्योंकि उसके पास दहेज में देने के लिए कुछ नहीं है। तो एक तरफ दौलत के ढेर पर बैठा वो शख्स भी है जो अपने दौलत के घमण्ड में चुर होकर इस कुप्रथा को इस हद तक बढ़ावा दें रहा। एक गरीब मजबूर बाप की बेटी का आशियाना उसकी उम्मीदों के चिंरागों से ही हमेशा जल कर खाक हो जा रहा है।
ये किस रास्ते पर जा रहे है हम जहां समाज में फैली इस बुराई की वजह से हर सेकेंड़ में हजारों महिलाओं लड़कियों को जिन्दा जला दिया जा रहा है। या उनको बड़ी बेहरहमी से तड़पा-तड़पा के मार दिया जा रहा है। ऐसी कुप्रथा हम समाज से खत्म करने की वजह उसे और बढ़ावा क्यों दे रहे है। क्या हमारा जमीर हमें इस बात के लिए धिक्कारता नहीं है या फि हमारा जमीर मर गया है। या इंसानियत नाम की कोई चीज नहीं रही हमारे अंदर।
क्यों हम इस कुप्रथा को समाज से खत्म करने की दिशा में कदम आगे नहीं बढ़ा रहें है। ये बात हमें याद रखना चाहिए अगर हम इस कुप्रथा को समाज से दूर करने कोशिश करेंगे तभी हम इसको जड़ से खत्म कर पायेगें। सरकार के द्वारा बनायें गये सख्त कानूनों का तो हम ऐसे दानव लोगों पर असर देख ही रहे है। क्योंकि सिर्फ कानून बनाने से कोई समस्या हल नहीं हो जाती जब तक समाज का हर वर्ग उस बुराई को बुराई न समझे।
और कब तक हम जागेगें और कितनी बेटियों की इस दहेज रूपी दानव को वली देगें। क्या समाज में कोई ऐसा मसिहा आयेगा जो इस कुप्रथा को जड़ से खत्म करने की दिशा में कदम बढ़ाऐगा। हम चाहे तो वो मसिहा हम ही हो सकते है जो सबसे पहले इस कुप्रथा को खत्म करने की दिशा में अपने कदम आगे बढ़ाएं। अगर हम युवा वर्ग से है तो हम ये डिसाईड करें हम न तो दहेज लेगें न देगें। अगर हम बेटें बेटी के माता-पिता है तो हम दहेज नहीं लेगे न देगें।
आज हम समाज के वो पढ़े लिखे युवा है हम चाहे तो पुरे समाज की सोच ही बदल कर रख सकते है। अगर हम इस कुप्रथा को खत्म करने की ताकत रखते है तो हमे चाहिए आगे बढक़र इसे खत्म करने की कोशिश करें और युवा वर्ग सबसे पहले ये कर के दिखाए न वो दहेज लेगें न देगे। क्या ऊपर वाले ने हमारे हाथों में इतनी ताकत नहीं दी है हम खुद अपनी जरूरतों का समान खरीद सकें। स्वाभिमान के साथ अपनी जिन्दगी जी सकें।
ये बात हम क्यों नहीं याद रखते देने वाले का मरतबा बड़ा और बुंलद होता है लेने वाला तो हमेशा हिकारत भरी निगाह से देखा जाता है। हम वो ही इंसान है जो किसी गरीब को पांच रूपये देकर भी उसके सामने सर उठाकर घमण्ड के साथ खड़े होते लेकिन उस वक्त हमारा ये अंहकार और घंमण्ड कहा जाता है जब हम किसी के द्वारा दिये हुए दहेज को लेना अपनी शान समझते है।
अब ये बात क्यों नहीं याद रखते देने वाले का हाथ हमेशा ऊपर रहता है और लेने वाले का नीचे। अगर हम फिर भी दहेज लेते है तो कितना गिर गये है हम क्या वजूद रहा हमारा वाकी इस दुनियां में एक मजबूर बाप की मजबूरी का फायदा उठाकर उसके गले पर अपनी शान शौकत की छुरा रखकर अपनी जरूरतों पुरा करना कहा की इंसानियत है ?
अब ये तो हमारी सोच पर ही निर्भर करता है हम अपने अस्तित्व को किस दिशा में ले जाये। या तो हम हर बुराई से बचकर दुनिया के लिए अपनी जिन्दगी की एक मिसाल पेश करें हां हम उन लोगों में से एक है। जिसने दहेज जैसी कुप्रथा को बढ़ावा नहीं दिया था। ये काश हमारे देश के हर नागरिक की ये सोच हो जाये तो हमारे देश से दहेज रूपी इस कुप्रथा को जड़ से खत्म किया जा सकता है।
आज हम दिखावे की जिन्दगी जीने में लगें है और शादी विवाह को हमने अपनी प्रतिष्ठा जाहिर करने का समान बना लिया है। ये प्रतिष्ठा तब भी बनी रह सकती है जब इस दौलत का उपयोग गरीब और लाचार लोगों की मदद करने में लगाएं। बेमतलब में बुराई का साथ देकर कुछ हासिल नहीं हो सकता है। मंझीलें उस इंसान के ही कदम चुमती है जो सबके लिए भला सोचता है।