हमारे देश को आजादी दिलाने के लिए हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने कितनी मुश्किलों का सामना किया। ये किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन उस तकलीफों का दर्द क्या था ये तो वहीं लोग जानते थे जिन्होंने अपने देश को आजादी दिलाने में इन तकलीफों का सामना किया था। कभी हम आजादी के उस दौर का इतिहास पढ़े तो हमें अहसास होगा कि ये लोग कैसे थे जो अपनी भारत माता के लिए हर दर्द हर जुल्म सह कर भी आजादी के गीत गाते हुए इस दुनिया से रूकसत हुए। अंग्रेजों ने हमारे देश पर अपनी हुकुमत बनाए रखने के लिए हर सम्भव कोशिश की। उन्होंने भारतीय नागरिकों पर जुल्म की इंतिहा की।
स्वतंत्रता सेनानियों हर तरह की सजा दी। ताकि वो डर कर अपने कदम पीछे कर लें। लेकिन वहां रे आजादी के दिवाने लोग हर जुल्म को सहकर भी चाही तो बस अपने देश की आजादी। अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर बनी सेल्युलर जेल आज भी काला पानी की दर्दनाक दास्तां सुनाती है। जहां पर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को रखा जाता था। आज भी लोग इसे इसी नाम से जानते हैं। यह जेल अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में बनी हुई है।
इस जेल का नाम सेल्यूलर पडऩे के पीछे एक वजह है। दरअसल, यहां हर कैदी के लिए एक अलग सेल होती थी और हर कैदी को अलग-अलग ही रखा जाता था, ताकि वो एक दूसरे से बात न कर सकें। ऐसे में कैदी बिल्कुल अकेले पड़ जाते थे और वो अकेलापन उनके लिए सबसे भयानक होता था। कहते हैं कि इस जेल में न जाने कितने ही भारतीयों को फांसी की सजा दी गई थी। इसके अलावा कई तो दूसरी वजहों से भी मर गए थे, लेकिन इसका रिकॉर्ड कहीं मौजूद नहीं है। इसी वजह से इस जेल को भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय कहा जाता है।
सेल्युलर जेल भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है।
भारत जब गुलामी की बेडिय़ों में जकड़ा था, अंग्रेजी सरकार स्वतंत्रता सेनानियों पर कहर ढा रही थी। हजारों सेनानियों को फांसी दे दी गई, तोपों के मुंह पर बांधकर उन्हें उड़ा दिया गया। कई ऐसे भी थे जिन्हें तिल तिलकर मारा जाता था, इसके लिए अंग्रेजों के पास सेल्युलर जेल का अस्त्र था। इस जेल को सेल्युलर इसलिए नाम दिया गया था, क्योंकि यहां एक कैदी से दूसरे से बिलकुल अलग रखा जाता था। जेल में हर कैदी के लिए एक अलग सेल होती थी।
यहां का अकेलापन कैदी के लिए सबसे भयावह होता था। यहां कितने भारतीयों को फांसी की सजा दी गई और कितने मर गए इसका रिकॉर्ड मौजूद नहीं है। लेकिन आज भी जीवित स्वतंत्रता सेनानियो के जेहन में कालापानी शब्द भयावह जगह के रूप में बसा है। यह शब्द भारत में सबसे बड़ी और बुरी सजा के लिए एक मुहावरा बना हुआ है।
इसे अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को कैद रखने के लिए बनाया गया था, जो कि भारत की भूमि से हजारों किलोमीटर दूर स्थित थी। काला पानी का भाव सांस्कृतिक शब्द काल से बना माना जाता है जिसका अर्थ होता है समय या मृत्यु। यानी काला पानी शब्द का अर्थ मृत्यु के स्थान से है, जहां से कोई वापस नहीं आता। हालांकि अंग्रजों ने इसे सेल्यूलर नाम दिया था, जिसके पीछे एक हैरान करने वाली वजह है।
यह जेल गहरे समुद्र से घिरी हुई है, जिसके चारों ओर कई किलोमीटर तक सिर्फ और सिर्फ समुद्र का पानी ही दिखता है। इसे पार कर पाना किसी के लिए भी आसान नहीं था। इस जेल की सबसे बड़ी खूबी ये थी कि इसकी चहारदीवारी एकदम छोटा बनाया गया था, जिसे कोई भी आसानी से पार कर सकता था, लेकिन इसके बाद जेल से बाहर निकलकर भाग जाना लगभग नामुमकिन था, क्योंकि ऐसा कोशिश करने पर कैदी समुद्र के पानी में ही डूबकर मर जाते।
अंडमान के पोर्ट ब्लेयर सिटी में स्थित इस जेल की चाहरदीवारी इतनी छोटी थी कि इसे आसानी से कोई भी पार कर सकता है। लेकिन यह स्थान चारों ओर से गहरे समुद्री पानी से घिरा हुआ है, जहां से सैकड़ों किमी दूर पानी के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता है। यहां का अंग्रेज सुपरिंडेंट कैदियों से अक्सर कहता था कि जेल दीवार इरादतन छोटी बनाई गई है, लेकिन यहां ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां से आप जा सकें। सबसे पहले 200 विद्रोहियों को जेलर डेविड बेरी और मेजर जेम्स पैटीसन वॉकर की सुरक्षा में यहां लाया गया। उसके बाद 733 विद्रोहियों को कराची से लाया गया। भारत और बर्मा से भी यहां सेनानियों को सजा के बतौर लाया गया था।
सुदूर द्वीप होने की वजह से यह विद्रोहियों को सजा देने के लिए अनुकूल जगह समझी जाती थी। उन्हें सिर्फ समाज से अलग करने के लिए यहां नहीं लाया जाता था, बल्कि उनसे जेल का निर्माण, भवन निर्माण, बंदरगाह निर्माण आदि के काम में भी लगाया जाता था। यहां आने वाले कैदी ब्रिटिश शासकों के घरों का निर्माण भी करते थे। 19वीं शताब्दी में जब स्वतंत्रता संग्राम ने जोर पकड़ा, तब यहां कैदियों की संख्या भी बड़ती गई।
सेल्यूलर जेल का निर्माण 1896 में प्रारंभ हुआ और 1906 में यह बनकर तैयार हुई। इसका मुख्य भवन लाल ईंटों से बना है। ये ईंटें बर्मा से यहां लाई गईं, जो आज म्यांमार के नाम से जाना जाता है। इस भवन की 7 शाखाएं हैं और बीचोंबीच एक टावर है। इस टावर से ही सभी कैदियों पर नजर रखी जाती थी। ऊपर से देखने पर यह साइकल के पहिए की तरह दिखाई देता है।
टावर के ऊपर एक बहुत बड़ा घंटा लगा था, जो किसी भी तरह का संभावित खतरा होने पर बजाया जाता था। प्रत्येक शाखा तीन मंजिल की बनी थी। इनमें कोई शयनकक्ष नहीं था और कुल 698 कोठरियां बनी थीं। प्रत्येक कोठरी 15 में 8 फीट की थी, जिसमें तीन मीटर की ऊंचाई पर रोशनदान थे। एक कोठरी का कैदी दूसरी कोठरी के कैदी से कोई संपर्क नहीं रख सकता था।
जेल में बंद स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बेहडिुयों से बांधा जाता था। कोल्हू से तेल पेरने का काम उनसे करवाया जाता था। हर कैदी को तीस पाउंड नारियल और सरसों को पेरना होता था। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता था तो उन्हें बुरी तरह से पीटा जाता था और बेडियों से जकड़ दिया जाता था।
कालापानी में अधिकाश कैदी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। इनमें प्रमुख रूप से डॉ. दीवन सिंह, मौलाना फजल-ए-हक खैराबादी, योगेंद्र शुक्ला, बटुकेश्वर दत्त, मौलाना अहमदउल्ला, मौवली अब्दुल रहीम सादिकपुरी, बाबूराव सावरकर, विनायक दामोदर सावरकर, भाई परमानंद, शदन चंद्र चटर्जी, सोहन सिंह, वमन राव जोशी, नंद गोपाल आदि थे। काला पानी जेल में भारत से लेकर बर्मा तक के लोगों को कैद में रखा गया था।
एक बार यहां 238 कैदियों ने भागने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें पकड़ लिया गया। एक कैदी ने तो आत्महत्या कर ली और बाकी पकड़े गए। जेल अधीक्षक वाकर ने 87 लोगों को फांसी पर लटकाने का आदेश दिया था। यहां 1930 में भगत सिंह के सहयोगी महावीर सिंह ने अत्याचार के खिलाफ भूख हड़ताल की थी। जेल कर्मचरियों ने उन्हें जबरन दूध पिलाया। दूध जैसे ही पेट के अंदर गया तो उनकी मौत हो गई।
इसके बाद उनके शव में एक पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक दिया गया था।
अंग्रेजों द्वारा अमानवीय अत्याचार करने के कारण 1930 में यहां कैदियों ने भूख हड़ताल कर दी थी, तब महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसमें हस्तक्षेप किया। 1937-38 में यहां से कैदियों को स्वदेश भेज दिया गया था। जापानी शासकों ने अंडमान पर 1942 में कब्जा किया और अंग्रेजों को वहां से मार भगाया। उस समय अंग्रेज कैदियों को सेल्युलर जेल में बंद कर दिया गया था। उस दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी वहां का दौरा किया था। 7 में से 2 शाखाओं को जापानियों ने नष्ट कर दिया था।
द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद 1945 में फिर अंग्रेजों ने यहां कब्जा जमाया। भारत को आजादी मिलने के बाद इसकी दो और शाखाओं को ध्वस्त कर दिया गया। शेष बची तीन शाखाएं और मुख्य टावर को 1969 में राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया। 1963 में यहां गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल खोला गया। वर्तमान में यह 500 बिस्तरों वाला अस्पताल है और 40 डॉक्टर यहां के निवासियों की सेवा कर रहे हैं। 10 मार्च 2006 को सेल्युलर जेल का शताब्दी वर्ष समारोह मनाया गया। भारत सरकार द्वारा इस जेल में सजा काट चुके कैदियों को बधाई भी दी गई।