सुल्तान-उल-हिंद, ख्वाजा -ए-ख्वाजगान, अता-ए-मुस्तफ़ा, दिलबरे मुर्तज़ा, हजरत मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह, अजमेरी जिन्हे ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है। ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह इस्लाम धर्म के एक ऐसे महान सूफी संत रहे है।
जिन्होने इस्लाम की शम्मा को हिन्दुस्तान की जमीन पर इस तरह से रोशन और मुनवर किया जिसकी चमक से हिन्दुस्तान का जरह-जरह आज भी रोशन और मुनवर है। खुद भूखे रहकर दुसरो को खाना खिलाते थे। जो गरीबो के मसीहा थे। वो अल्लाह के सच्चे बंदे थे। अल्लाह ने उन्हे रूहानी व गअबी ताकते बख्शी थी।
जिसका इस्तेमाल उन्होने गरीबों मोहताजों की मदद करने में दीन दुखीयों की दुखों को दूर करने में लगा दी। उनके दर से आज भी कोई दामन खाली नहीं जाता है। ये वो दर है जहां आज भी लोगों की मुरादें पूरी होती हैं। ख्वाजा गऱीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह के उर्स के मौक़े पर बड़ी तादाद में अक़ीदतमंद दरगाह शरीफ़ पर हाजऱी देते हैं।
अजमेर दरगाह पर रुहानियत के बेमिस्ल मनाजिर देखने को मिलते है। ये वो आस्ताना है जहां हर धर्म के लोग बड़ी अकीदत से आते है और अपने दामन भर-भर मुरादे लिये खुशियों के साथ अपने घरों को जाते है।
ख्वाजा गऱीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह का हसबो नसब और शजरा-ए-तैय्यबा हजऱत इमामे मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से होता हुआ इमाम अली मुर्तज़ा अलैहिस्सलाम से जा कर मिलता है। वालिद की तरफ़ से आप का सिलसिल-ए-नस्ब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से होता हुआ इमाम अली अलैहिस्सलाम से मिलता है जबकि वालिदा का शजरा इमामे हसन अलैहिस्सलाम से मिलता है। आपके वालिद का नाम सैय्यद ग़्यासुद्दीन और वालिदा का नाम उम्मुल वरा है।
रजब के महीनें में 530 हिजरी ब मुताबिक़ 1135 ईसवी को गऱीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह की विलादत ईरान के ख़ुरासान के संजर शहर में हुई थी। ख्वाजा गऱीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह की पैदाइश के बाद आपके अम्मी अब्बू ने आपका नाम मोईनुद्दीन हसन रखा प्यार से वो आपको हसन कहकर ही पुकारते थे।
ख्वाजा गऱीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह बचपन में और बच्चो की तरह नही थे। बचपन में ही ख्वाजा की बातो को देखकर ऐसा लगता था कि यह बच्चा कोई आम बच्चा नही है। बचपन से ही ख्वाजा दूसरो के लिए फिक्रमंद रहते थे। ख्वाजा का बचपन बहुत ही संजीदगी से गुजरा था। ख्वाजा के वालिद एक बड़े आलिम थे। ख्वाजा की शुरूआती तालिम घर ही हुई।
लगभग नौ साल की उम्र में ही ख्वाजा ने कुरआन हिफ्ज कर लिया था। इसके बाद संजर के एक मदरसे में आगे की तालीम के लिए ख्वाजा का दाखिला हुआ। वहा ख्वाजा ने आगे की तालीम हासिल की। थोड़े ही समय में ख्वाजा ने तालीम के मामले में एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया था। ख्वाजा और बच्चो की तरह खेल कूद नही करते थे।
545 हिजरी ब मुताबिक़ 1150 ईस्वी में गऱीब नवाज़ के सर से बाप का साया उठ गया। इस वक्त गऱीब नवाज़ की उम्र सिर्फ़ 15 साल थी। नन्ही सी उम्र में गऱीब नवाज़ नें दाग़े मफ़ारेक़त उठाया, यतीमी का दाग़ दिल से मिटा भी नही था कि शफ़ीक़ मां का साया भी सर से उठ गया। छोटी सी उम्र में मुसीबतों के दो पहाड़ टूटने से ख्वाजा गऱीब नवाज़ बहुत ग़मगीन हुए, लेकिन ऐसे हालात में भी सब्रो ज़ब्त और इस्तेक़लाल का दामन गऱीब नवाज़ नें नही छोड़ा।
जल्द ही वालिदे माजिद का कारोबार निहायत की होशियारी के साथ संभाल लिया। मरहूम बाप की पनचक्की और उनके बाग़ की देखभाल आप रहमतुल्लाह अलैह, करते। आप दिन भर टहनियों को काटते छाटते, दरख़्तो को पानी देते और नए पौधे लगानें में मशग़ूल रहते। इसी काश्तकारी से होने वाली आमदनी से आप का घर चलता। बाग़ के अलावा आप की पन चक्की भी चलती थी। जिससे शहर वाले अपना आटा पिसवाया करते थे।
एक समय की बात है खवाजा अपने बाग को पानी दे रहे थे। सूफी जिनका नाम इब्राहीम क़न्दोज़ी था उधर से गुजर रहे थे। अचानक उनकी नजर बाग में पानी देते उस नौजवान पर पड़ी। नौजवान पर नजर पड़ते ही उन्हे एक ऐसी कशीश हुई की वो नौजवान से मिलने बाग के अंदर चले आये। ख्वाजा ने एक सूफी संत को बाग में आया देख उनकी बहुत खिदमत की दरख्त के साए में चादर बिछा कर उनको बिठाया।
फिर अपने बाग़ के कुछ फल इब्राहीम क़दोज़ी की ख़िदमत में पेश किया। इस दौरान इब्राहीम क़न्दोज़ी नें कुछ फल खाए और अपने कशकोल से रोटी का टुकला निकला कर चबाया और ख्वाजा गरीब नमाज रहमतुल्लाह अलैह को खिला दिया। थोड़ी देर बाद इब्राहीम क़न्दोज़ी तो चले गए। लेकिन रोटी के उस टुकड़े नें ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की जिन्दगी ही बदल दी।
ख्वाजा गऱीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह ़ के दिल में तभी से ख्याल आया कि दुनिया के सारे काम छोड़ कर ख़ुदा की याद और तलाश में जिन्दगी बसर करनी चाहिए। वही से ख्वाजा ने अपनी जिन्दगी का नया रास्ता अपनाया। जो रास्ता दुनिया की मौहब्बत से बिलकुल अलग था। वो रास्ता अल्लाह की याद से भरा था वो रास्ता दीन दुखियो की मदद से भरा था।
वो रास्ता एक रूहानी रास्ता था। वो रास्ता अल्लाह और महबूब के बीच की दूरी को कम करता था। इसी ख्याल में आप नें बाग़ और पनचक्की को फऱोख़्त कर दिया और हक की तलाश में उस रूहानी रास्ते पर राहे ख़ुदा की तरफ़ निकल पड़े। बाग़ और पनचक्की से मिलने वाली क़ीमत से कुछ अपने सफऱ के एखऱाजात के लिए रख लिया और कुछ ग़ुरबा और मसाकीन में तक़सीम कर दिया।
इस रूहानी रास्ते पर निकलने के बाद ख्वाजा ने फिर पिछे मुडक़र नही देखा। ख्वाजा गरीब नवाज इल्म व तालीम हासिल करते हुए समरकंद, बुखारा, बगदाद, इराक, अरब, शाम, आदि का सफर तय करते हुए उन दिनों समरक़द इल्मों अदब का मरकज़ हुआ करता था। आप हुसूले इल्म के लिए वहां पहुंचे।
इल्म हासिल करने के बाद आप के अंदर हक़ की तलाश का वलवला पैदा हुआ। हक़ की तलाश में आप लंबी मसाफ़ते तय करते हुए बग़दाद पहुंचे। बग़दाद में उस वक्त ईरान के नेशापुर के बुज़ुर्ग ख्वाजा उस्माने हारुनी के तसव्वुफ़ का चर्चा था। 1157 में ख्वाजा हारून पहुचें। आप ख्वाजा उस्माने हारुनी की ख़िदमत में पहुंचे और उनके मुरीद हो गए।
मुरीद होने के बाद ख्वाज़ा गरीब नवाज अपने पीरो मुर्शद की खिदमत और हुक्म की तामीलो तकमील से दमभर भी ग़ाफिल नही हुए और रात दिन पीर के सामने कमरबस्ता रहते थे। बीस साल की खिदमत के बाद गरीब नवाज के मक़सद की तकमील हो गई, यहां तक की पीर के ज़बान से ये ख़ुशख़बरी भी सुन ली की मोईनुद्दीन तुम्हारा काम मुकम्मल हो गया और खिलाफ़त का हुक्मनामा भी तहरीर फऱमाया।
खिलाफ़त अता फरमाकर पीरो मुर्शद नें तमाम नसीहतें देकर गऱीब नवाज़ को रूखसत कर दिया और ख़ुद गोशानशींन हो गए।
पीरो मुर्शिंद से रूखसत हो कर ख्वाजा गरीब नमाज रहमतुल्लाह अलैह मक्का-ए-मुकर्रमा और मदीना-ए-मुनव्वरा के सफऱ पर रवाना हो गए। मक्कें में रहकर बेशुमार सादते और नेमते अपने दामन में समेट कर आप नें मदीना का सफऱ किया। मक्के से मदीना तक के सफऱ के दौरान आप नें बहुत सी मज़ारात की जियारात भी की।
मदीनें में एक रोज़ आप नें ख्वाब में रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जियारत की आप नें देखा कि सरवरे कायनात सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हुक्म दे रहे हैं कि ऐ मोईन तुम मेरे दीन के मोईन हो यानी मददरगार हो। तुम हिंदुस्तान जाओ और मेरे दीने इस्लाम की तब्लीग़ करो बस आप नें हुक्मे पैग़ाबरे आज़म सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मुताबिक़ मदीनें की चौखट चूमी और हिंदुस्तान के सफऱ पर रवाना हो गए।
हिंदुस्तान में आप ने राजस्थान के रेगिस्तान को चुना और अजमेर में जहां आप का मज़ार है वहीं मुस्तकिल कय़ाम किया और वहीं से रह कर हजरत गऱीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह ने दीन व शरीयत की वो शम्मा रौशन की जिसने पूरे खि़त्ते को पुरनूर कर दिया।
हजरत ख्वाजा गरीब नवाज मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह अजमेर में पहली बार 1190 में आये थे। इस समय अजमेर में राजा पृथ्वीराज चौहान का शासन था। जब हजरत ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह अपने साथियो के साथ अजमेर पहुंचे तो ख्वाजा ने अजमेर शहर से बाहर एक जगह पेड़ो के साए के नीचे अपना ठिकाना बनाया।
लेकिन राजा पृथ्वीराज के सैनिको ने ख्वाजा को वहा ठहरने नही दिया उन्होने ख्वाजा से कहा आप यहा नही बैठ सकते है। यह स्थान राजा के ऊंटो के बैठने का है। ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह को यह बात बुरी लगी। ख्वाजा ने कहा- अच्छा ऊंट बैठते है तो बैठे।
यह कहकर ख्वाजा वहा से उठकर अपने साथियो के साथ चले गए। यहा से जाकर ख्वाजा ने अनासागर के किनारे जाकर रहने लगें। यह जगह आज भी ख्वाजा का चिल्ला के नाम से जानी जाती है।
ऊंट रोज की तरह अपने स्थान पर आकर बैठे। लेकिन वह ऊंट ऐसे बैठे की उठाए से भी नही उठे । ऊंटो को ऊठाने की कोशिश की गई। लेकिन ऊंट वहां से नहीं उठ सकें। राजा के सभी सेवक परेशान हो गए। सेवकों ने इस सारी घटना की खबर राजा पृथ्वीराज को दी। राजा पृथ्वीराज यह बात सुनकर खुद हैरत में पड़ गए।
उन्होने सेवको को आदेश दिया कि जाओ उस फकीर से माफी मांगो। सेवक ख्वाजा के पास गए और उनसे माफी मागने लगे। ख्वाजा ने सेवको को माफ कर दिया और कहा अच्छा जाओ ऊंट खड़े हो गए है। नौकर खुशी खुशी ऊटो के पास गए। और उनकी खुशी हैरत में बदल गई जब उन्होने जाकर देखा की ऊंट खड़े हुए थे।
इसके बाद भी ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह की अनेक करामाते हुई। और धीरे धीरे अजमेर और आस पास के क्षेत्र में ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह की प्रसिद्धि चारो ओर फैल गई। ख्वाजा से प्रभावित होकर साधूराम और अजयपाल ने इस्लाम कबूल कर लिया यह दोनो व्यक्ति अपने समाज में अहम स्थान रखते थे।
अब तक ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह अनासागर के किनारे ही ठहरे हुए थे। साधूराम और अजयपाल ने इस्लाम कबूलने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज से विनती की कि आपने यहा शहर के बाहर जंगल में ठिकाना बनाया हुआ है। हम आपसे विनती करते है कि आप आबादी में ठहरे। ताकि आपके कदमो की बरकत से लोग फायदा उठा सके।
ख्वाजा ने उन दोनो की की बात मान ली। ख्वाजा ने अपने साथी यादगार मुहम्मद को शहर में ठहरने हेतु सही स्थान देखने के लिए भेजा। यादगार मुहम्मद ने स्थान देखकर ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह ख्वाजा को बताया। फिर हजरत ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह अपने साथियो के साथ उस स्थान पर अपना ठिकाना बनाया।
यहा ख्वाजा ने जमाअत खाना, इबादत खाना, मकतब बनवाया। यही वो मुकद्दस जगह है जहां आज भी ख्वाजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह की आलिशान दरगाह है। जहां हर धर्म के लोग बड़ी अकीदत के साथ आते है और अपनी मुरादों के पुरा होने पर खुशियां के साथ ख्याजा गरीब नवाज रहमतुल्लाह अलैह से रूहानियत और फैज पाते है।