रमजान रहमतों और बरकतों का महीना होता है। रमजान के महीने में खुदा की रहमतों की छमाछम बारिस होती है। जिसमें हर मुसलमान अपने आपको तरोताजा महसूस करता है। ऐसा माना जाता है रमजान के महीने में अल्लाह पाक की तरफ से हर मुसलमान की रोजी में बरकत होती है। जिससे वो अपने दस्तरख्वान को कुसादा कर सकें। रमजान का महीना ये सीख देता है साहिबे हैसियत इंसान अपने दस्तरख्वान से गरीब और महोताज लोगों को भी खिलाकर उनकी मदद करें। रमजान में की गई ईबादत इंसान के दिल को सुकून पहुंचाती है। इसलिए हर मुसलमान रमजान के महीने ज्यादा से ज्यादा अपना वक्त इबादत में गुजारता है।
इस्लाम में रमजान के महीने का बहुत अहमियत होती है। रमजान अरबी माह का नाम है और यह साल का नौवां महीना होता है। रमजान के महीने का इस्लाम मजहब में खास अहमियत है।
रोजा रहने का मतलब सिर्फ भूखा रहना नहीं है। जिस्म के हर अंग का रोजा होता है। रोजा न सिर्फ दिन में खाने-पीने से परहेज करने का नाम है बल्कि यह इंसान के जिस्म और रूह को पाकीजा करता है इंसान को नैकी की राह पर चलाता है। और हर बुराई से बचना सिखाता है।
रोजा अरबी जुबान का एक शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है रोक देना या रुक जाना मतलब रोजे के दौरान कुछ खाने-पीने के अलावा हर
उस काम से खुद को दूर कर लेना है, या रोक देना है, जो इंसान को बुराई की तरफ ले जाता हो और अच्छाई की ओर जाने से रोकता हो और जिससे कुरान और हदीस में मना किया गया है।
इस्लाम में रमजान का बहुत महत्व हैं। इस्लाम धर्म में रमजान के महीने का महत्व बताते हुए कहा गया है, इस महीने की गई इबादत से अल्लाह खुश होते हैं और रोजा रखकर मांगी गई हर दुआ कुबूल होती है। ऐसा माना जाता है, अन्य दिनों के मुकाबले रमजान में की कई इबादत का सबाब 70 गुना अधिक होता है। रमजान का रोजा 29 या 30 दिनों का होता है।
जो इंसान रोजे रखते है, तो उसे दूसरों की भूख और प्यास को महसूस करने की सलाहियत उनसे ज्यादा होती है, जिसे कभी भूख और प्यास का सामना न करना पड़ा हो। इसी तरह आंख और कान के रोजे का मतलब है कि आप किसी का बुरा न सोचे, बुरा न देखें, बुरा न सुने और बुरा न बोले। अपने हाथों से कोई गुनाह न करें और अपने पांव से बुराई के रास्ते पर न चलें। हमेशा अच्छाई के रास्ते पर चलते हुए सभी इंसानियत के लिए भलाई के बारे में ही सोचे।
रोजा का मतलब शरीर को आराम देना और उसे फिर से तरोताजा होने का मौका देना होता है। रमजान मोमिनो के लिए एक रिफ्रेशर कोर्स की तरह है। दरअसल, साल के 11 महीने इंसानों से जिंदगी गुजारने और ईमान के रास्ते पर और सुन्नत और नेक रास्ते पर चलने में जो कोताहिया हुई है, रमजान उसे फिर से सही करने का एक सही मौका देता है। रमजान दूसरे की दुख तकलीफ को समझना सिखाता है। जो इंसान पुरे 11 महीने भर पेट खाना खाता है। और खुदा की दी हुई नेयमतो का लुत्फ उठाता है।
वो इन 11 महीने में उन गरीब और महोताज लोगों के दर्द को नहीं समझ पाता है जिन्हें हर दिन भर पेट खाना नसीब नहीं होता है। लेकिन जब इस एक महीने में इंसान भुखा रहता है। तो वो भुख की शिद्दत को महसूस करता है। और इसके दिल में सबसे पहले उन्हीं लोगों का ख्याल आता है जो हर दिन भुख की तकलीफ को महसूस करते है।
इस्लाम के पांच मौलिक सिद्धांत होते है। तौहीद एक ईश्वर पर ईमान रखना, नमाज, रोजा, जकात और हज रोजा भी ईस्लाम का एक हिस्सा है। यानी यह सभी मुसलमानों पर फर्ज है। रमजान के रोजे सभी मुसलमानों पर फर्ज होते है।
रमजान के रोजे रखना हर हाल में अपने आपको बुराई से बचाकर रखना इस्लाम के मानने वालों के लिए जरूरी होता है। जैसे मुसलमानों पर पांच वक्त की नमाज फर्ज की गई है रोजाना पांच वक्त की नमाज के अलावा पूरे एक महीने के रोजे रखना भी फर्ज है।
रमजान में कुरान की तिलाबत करना कुरान को सुनना भी जरूरी होती है। रमजान में कुरान सुनने के लिए एक खास नमाज होती है, जिसे ’तरावीह’ कहते हैं। इस महीने में तरावीह की नमाज पढऩे और उसमें कुरान को सुनने का भी खास महत्व है। यानी लाजिमी तौर पर इसका एहतमाम किया जाता है।
हालांकि बीमारी या कुछ अन्य परिस्थितियों में रोजे से छूट भी दी गई है या रमजान के रोजे को कजा भी रखे जा सकते है। साल भर में छुटे रोजे पुरे करना फर्ज होता है। रमजान महीने में इस्लाम धर्म को मनाने वाले हर मुसलमान को शरीयत के अनुसार रोजा रखना होता है लेकिन जो व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, या किसी बिमारी में मुब्तला हैं, या किसी तरह के सफर में हैं और ऐसे लोगों को रोजे में अहतियात दी गई है।
वो रमजान के रोजे छोड़ सकते है लेकिन बाद में पुरे साल भर में रोजे पुरे करना जरूरी होता है। रमजान में रोजे के दौरान सुबह सादिक से लेकर शाम को गुरूबे अफताव तक खाने पीने से परहेज किया जाता है। हालांकि सिर्फ खाना और पीना छोड़ देने से रोजा मुकम्मल नहीं होता है। वल्कि पुरे महीने हर बुराई से बचने का रोजा होता है।
रमजान के रोजे का मतलब शरीर को आराम देना और उसे फिर से तरोताजा होने का मौका देना होता है। इस बात की तस्दीक वैज्ञानिक रिसर्च में भी की गई है कि रोजे का शरीर के अंगों के साथ-साथ दिमाग पर भी काफी सकारात्मक असर पड़ता है।
रमजान महीने में हर साहिबे माल इंसान पर जकात भी फर्ज की गई है। रमजान माह में आर्थिक रूप से संपन्न मुसलमान को अपने संचित धन का 2.5 प्रतिशत समाज के गरीब और मोहताज लोगों को दान करने का हुक्म है। जकात भी इस्लाम के पांच मौलिक सिद्धांतों में से एक है। यह व्यवस्था इसलिए है ताकि समाज में कोई भी वंचित और अभावग्रस्त न रहे और किसी एक के पास धन का अंबार न खड़ा हो जाए।
’जकात’ क्या है? जकात किसी के पास साल भर तक कैश के रूप में संचित धन के अलावा 7.5 तोला सोना और 52.5 तोला चांदी होने पर भी दिया जाता है। रमजान में जकात के अलावा फितरा और खैरात देने की भी व्यवस्था है।
फितरा और खैरात भी दान का एक रूप है, जिस पर समाज के गरीब लोगों का हक होता है। रमजान के महीने में ज्यादा से ज्यादा गरीबी की महोताजों की मदद करने की तरबीयत दी जाती है। ताकि कोई भी गरीब और महोताज भी इस माहे मुबारक में अल्लाह पाक की रहमतों और बरकतो से महरूम न रहें।