Education is priceless...Editorial

इंसान की जिन्दगी में शिक्षा वो अनमोल खजाना होती हैं। जिसके दम पर वो चाहे तो सारी दुनिया को जीत सकता हैं। शिक्षा ही इंसान को अच्छे बुरे का अंतर सिखाती हैं। जीवन की हर मुश्किल को आसान बनाती हैं। शिक्षा से इंसान उस मुकाम को आसानी से पा सकता है, जिसको वो कभी ख्वाबों में देखता था…

जिन्दगी में शिक्षा की अहमियत को समझते हुए ही आज हर अभिभावक चाहते हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़-लिखकर अच्छें इंसान बने और ऊंचे से ऊंचा मुकाम हासिल करें। इसी सोच के मद्देनजर आज हर अभिभावक अपने बच्चों को अच्छें से अच्छें स्कूल में पढ़ाना चाहते है। इस के लिए वो जी जान से महेन्त करते है। फिर कहीं जाकर अपने बच्चे का किसी अच्छे प्राइवेट स्कूल में एडमिशन करा पाते हैं।

लेकिन यही से फिर शुरू होती हैं। अभिभावकों की अग्नि परीक्षा। क्योंकि जिस प्राइवेट स्कूल को वो नाम के अनुसार अच्छा स्कूल समझते है। एडमिशन के बाद उनको पता चलता है। स्कूल का संचालक तो शिक्षा की अहमियत से कोई मतलब नहीं हैं। उसको को तो बस मतलब है उस पैसे से जो वो हर बार नई-नई डिमांड रखकर बच्चों के अभिभाकों से ले सकें।

उस वक्त बच्चों के अभिभावकों अहसास होता हैं। जब स्कूलों के खुलने के साथ ही प्राइवेट स्कूलों की लूट का कार्यक्रम शुरू हो जाता हैं। पहले तो अभिभावकों विवश किया जाता हैं। स्कूल के द्वारा बताई दुकानों से ही किताब काफी खरीदें। स्कूल के अंदर व उनकी बताई गई दुकान से ही किताब, कॉपी, स्टेशनरी, यूनिफार्म आदि खरीदने के लिए अभिभावकों को विवश रहते हैं। वरना उनके बच्चें रिजल्ट खराब कर दिया जाएगा।
एक अप्रैल से शुरू हुए नए शिक्षा सत्र में स्कूल फीस में काफी बढ़ोतरी कर दी है।

इससे अभिभावक खासे परेशान हैं। वैसे ही दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई के इस दौर में इंसान का घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा हैं। ऐसे में प्राईवेट स्कूल संचालकों द्वारा बढ़ाई गई फीस अभिभावकों के लिए परेशानी का सबब बन गई हैं। पिछले तीन साल के मुकाबले में डायरेक्ट दस गुना फीस बढ़ाई गई है। जिससे अभिभावकों की मुश्किल को इतना ज्यादा बढ़ा दिया हैं। मध्यवर्गीय परिवार कर्ज के बोझ तले में दव गए हैं।

अब स्कूल संचालकों द्वारा एनसीईआरटी की किताबों की जगह प्राइवेट पब्लिशर्स की महंगी किताबों को खरीदवाने से उनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। जब पेपर एनसीईआरटी की किताबों के सिलेबस के आधार पर आता है तो फिर स्कूलों में प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबें क्यों लगाई जा रही हैं। वैसे भी प्राइवेट प्रकाशकों की किताबों की कीमत एनसीईआरटी की किताबों से काफी ज्यादा है। ऊपर से जो कॉपी बाजार में 20 रुपये की मिल रही है उसे 90 से 120 रुपये में बेच रहे हैं। नए छात्र पुराने छात्रों से किताब लेकर पढ़ाई ना कर सकें इसके लिए पुरानी किताबों के एक दो पाठ्यक्रम को बदल दिया गया है या आगे पीछे कर दिया है। अभिभावकों का कहना है कि स्कूल संचालक लूटने का हर प्रकार का हथकंडा अपना रहे हैं। स्कूल संचालक अपने स्कूल में नियमानुसार एनसीईआरटी की किताबें ना लगाकर कमीशन खाने के चक्कर में प्राइवेट प्रकाशकों की महंगी व मोटी किताबें लगा रहे हैं और अभिभावकों पर स्कूल के अंदर खुली दुकानों या बाहर अपनी बताई गई दुकानों से ही खरीदने का दबाव डाल रहे हैं।

जिन किताबों की कोई जरूरत नहीं है उन्हें भी खरीदने के लिए कहा जा रहा है। फालतू किताबें लगा कर बच्चों के मासूम कंधों पर बस्ते का बोझ बढ़ाया जा रहा है। जबकि केंद्र व राज्य सरकार ने सभी क्लासों के बच्चों के बस्ते का वजन निश्चित किया हुआ है। केंद्रीय शिक्षा विभाग की ओर से नर्सरी से लेकर कक्षा 12 तक के बच्चों के बस्ते का वजन तय कर दिया गया है उसके बावजूद कमीशन खाने के चक्कर में छात्रों के मासूम कंधों पर भारी बस्ते का बोझ लादा जा रहा है। ऐसा करके उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया जा रहा हैं। साथ ही प्राईवेट स्कूल के टिचर बच्चों पर रोज पुरी किताबे लाने का दवाब डालतें हैं। बच्चों से कहा जाता है कि तुम बस ऑटो से तो आते हो। बैग में पुरी किताब लाओं। जबकि छोटे बच्चों को बैग का वजन तो उठाना ही पडता हैं।

प्राईवेट स्कूल संचालकों ने शिक्षा को एक करोबार बना लिया है। जितने पैसे बच्चों के अभिभावकों से सुविधाओं के नाम पर संचालकों द्वारा लिए जा रहे हैं। उतनी सुविधा भी स्कूलों में बच्चों को नहीं दी जा रही हैं। प्राईवेट स्कूल संचालकों द्वारा हर बच्चे से स्कूल बस के लिए 2 से 3 हजार रूपए प्रति माह लिए जा रहे हैं। लेकिन बसों में वो सारी सुविधाओं का अभाव देखा गया है। जो स्कूल बसों में होनी चाहिए। बेचारे

अभिभावक ठगा हुआ सा महसूस करते जब अपने बच्चों को इस तरह से स्कूल से आते जाते देखते है।
जिस तरह से स्कूल संचालकों द्वारा एक-एक बच्चे से फीस ली जा रही उसके हिसाब से स्कूलों में पढ़ाई भी नहीं कराई जा रही हैं। स्कूली पढ़ाई मेन दसवी की पढ़ाई होती हैं। उसकी बात करें तो आज हर प्राईवेट स्कूल संचालकों द्वारा दसवी की फीस 21से 25 हजार रूपए लिए जा रहें हैं। लेकिन पढ़ाई की बात करे तो बच्चों को न तो ठीक से इंग्लिस आती है। न ही हिन्दी आती है। और मेक्स का तो ये हाल है समझमें नहीं आता आगे बच्चों भाविष्य क्या होगा।

अभिभावकों द्वारा इतनी फीस देने के बावजूद भी स्कूलों में इतनी अच्छी पढ़ाई नहीं होती हैं। जिससे बच्चे सब कुछ स्कूलों में सिख सकें। इसलिए अभिभावकों को बच्चों को कोचिंग क्लास भेजना पड़ता हैं। ज्यादा से ज्यादा कोचिंग टिचर इन प्राईवेट स्कूल के ही होते है। जो बच्चों को कोचिंग देने के लिए मुंह मागी किमत मागते है। अगर अभिभावक अलग से कोचिंग पढ़ते है तो उनके बच्चों के रिजल्ट बिगाढ दिये जाते हैं। हर तरह से अभिभावकों को मजबूर किया जाता हैं।

प्राईवेट स्कूल संचालकों का तो ये हाल है। वो स्कूल में देख लेते जो बच्चे पढ़ाई में अच्छे होते हैं। उन्ही पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। ताकि उनके साथ थोड़ी महेन्त कर के स्कूल का नाम बनाया जा सकें। हमारे स्कूल में इतने बच्चे अच्छे नंबर से पास हुए हैं। दसवी तक तो ऐसा होता है। पेपर से पहले बच्चों को बता दिया जाता ये दस कवेश्चन याद कर लेना पेपर में यही आएगें। और इस तरह से बच्चें को रट्टा मार तोता बना दिया जाता हैं। जब बच्चें के सामने आसली दसवीं की बोड परीक्षा आती है। हमेशा रटने का आदि बच्चा कुछ नहीं कर पाता हैं।

लेकिन प्राईवेट स्कूल संचालकों ने तो अब इसका भी हल निकाल लिया हैं। अब कई स्कूलों में बच्चों को ए, बी,सी,डी सेक्षनों के हिसाब से बाट दिया गया है। ए सेक्षन में सबसे अच्छे पढऩें वाले बच्चों को ही बिठाया जाता है। और उनके साथ ज्यादा महेन्त की जाती ताकि स्कूल रिजल्ट अच्छा आ सकें। बी सेक्षन उससे कम पढ़ाई करने वाले बच्चों को बिठाया जाता है। और यहां पढ़ाई थोड़ी कम ही होती है। यानी दस में से दो पीरियड टिचर अटेन्ड करती हैं। और सी और डी में रहने वाले बच्चों का तो भगवान ही मालिक हैं। ये पढ़ाई में कमजोर बच्चे होते हैं। जिनके अभिभावकों से भी उतनी ही फीस ली जाती हैं। जितनी दूसरे बच्चों से ली जाती हैं। लेकिन स्कूलों में इन बच्चों के साथ सिर्फ खिलबाड़ ही किया जाता है।

प्राईवेट स्कूलों सुविधाओं की हम बात करें तो सुविधाओं का ये हाल हैं। एक क्लास रूम में सिर्फ दो पंखें लगे होते हैं। वो भी नाम के सिर्फ हिल रहे होते हैं। वहीं स्कूल संचालक एसी रूम बैठा होता है। और बच्चों और उनके अभिभावकों से उसका मिलना भी गुनाह होता हैं।

स्कूलों में बने टॉयलेट की बात करें तो इतने सारे बच्चों के लिए नाम मात्र टॉयलेट बने होते हैं। उसमें भी लडक़े लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट नहीं बनाए जाते है। पैसे तो अभिभावकों से बहुत लेते हैं। लेकिन बच्चा हर बार स्कूलों में डर के साये में जीने को मजबूर रहता हैं।

Syed Shabana Ali

Harda (M.P.)