सिघाड़े की खेती किसानों के लिए मुनाफे की खेती होती जा रही है क्योंकि इसकी मांग बढ़ रही है। सिंघाड़ा तालाबों में पैदा होने वाली फसल है। मध्यप्रदेश में सिंघाड़े की खेती लगभग 6000 हेक्टेयर में की जा रही है। सिंघाड़े के कच्चे व ताजे फलों की मांग ज्यादा होती हैं। सिंघाड़े के पके फलों को सुखाकर उसका आटा बनाया जाता है जिससे बने व्यंजनों का उपयोग उपवास में किया जाता है।
सिंघाड़ा सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होता हैं। सिंघाड़े में कई मुख्य पोषक तत्व होते हैं। प्रोटीन 4.7 प्रतिशत एवं शर्करा 23.3 प्रतिशत होते हैं इसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, पोटेशियम, तांबा, मैगनीज, जिंक, प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, सोडियम फाइबर, पोटेशियम और विटामिन बी6 विटामिन सी भी सूक्ष्म मात्रा में उपलब्ध होते हैं। सिंघाड़े को पानी फल भी कहा जाता है। सिंघाड़े में फाइबर की मात्रा अधिक होने के कारण ये शरीर में भोजन को अधिक कुशलता से पचाने में मदद करता है।
अगर आपके घर के पास कोई तालाब है तो आप इसकी खेती आसानी से कर सकते हैं। ये सही समय है सिंघाड़े की बुवाई कर लाभ कमाने का। सिघाड़े का आटा व्रत में खाया जाता है और उसके दाम भी अच्छे मिलते हैं। सिघाड़े की मांग दिनों दिन बाजार में बढ़ती जा रही हैं। क्योंकि आजकल सिघाड़े से कई तरह के व्यंजन बनाएं जा रहें हैं। इसलिए अब सिंघाड़े की खेती किसानों के लिए अधिक फायदेमंद साबित हो रही हैं। इसलिए अब किसान बड़े पैमाने पर सिंघाड़े की खेती कर रहे हैं।
सिंघाड़े की बुवाई जून, जुलाई और अगस्त महीने तक किसान कर सकते हैं। सितम्बर महीने से सिघाड़े के पौधों में सिघाड़े उगने शुरू हो जाते हैं और अक्टूबर से लेकर जनवरी तक पौधे से सिघाड़े लगने लगते हैं। सिघाड़े की खेती को पूरे साल की जा सकती है और फिर इसे पानी से निकालकर बाजार बेचा जाता है।
सिंघाड़े की खेती को तालाबों में की जाती हैं। सिंघाड़े की फसल की खेती उन्नत कृषि तकनीक अपनाकर निचले खेतों जिनमें पानी का भराव जुलाई से नवम्बर-दिसम्बर माह तक लगभग एक से दो फीट तक होता है आसानी से की जा सकती है।
सिंघाड़े की खेती उष्ण कटिबन्धीय जलवायु वाले क्षेत्रों में की जाती है। इसकी खेती के लिए खेत में एक से दो फीट पानी की जरूरत होती है। इसकी खेती तलाबों में की जाती हैं। सिंघाड़ा उत्पादन हेतु दोमट या बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी. एच. 6.0 से 7.5 तक होता है अधिक उपयुक्त होती है।
सिंघाड़ा किस्में में हरीरा गठुआ, लाल गठुआ, कटीला, लाल चिकनी गुलरी, किस्मों की पहली तुड़ाई रोपाई के 120 से 130 दिन में होती है। इसी प्रकार देर से पकने वाली किस्में करिया हरीरा, गुलरा हरीरा, गपाचा में पहली तुड़ाई 150 से 160 दिनों में होती है।
सिंघाड़े की नर्सरी तैयार करने हेतु दूसरी तुड़ाई के स्वस्थ पके फलों का बीज हेतु चयन करके उन्हे जनवरी माह तक पानी में डुबाकर रखा जाता है। अंकुरण के पहले फरवरी के द्वितीय सप्ताह में इन फलों को सुरक्षित स्थान में गहरे पानी में तालाब या टांकें में डाल दिये जाते है। मार्च माह में फलों से बेल निकलने लगती है व लगभग एक माह में 1.5 से 2 मीटर तक लम्बी हो जाती है।
इन बेलों से एक मीटर लंबी बेलों को तोडक़र अप्रैल से जून तक रोपणी का फैलाव खरपतवार रहित तालाब में किया जाता है। रोपणी लगाने हेतु प्रति हेक्टेयर 300 किलोग्राम सुपर फॉस्फेट, 60 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम यूरिया तालाब में उपयोग की जाती है साथ ही साथ रोपणी को कीट एवं रोगों से सुरक्षित रखना अति आवश्यक है। कीट एवं रोगों की रोकथाम हेतु आवश्यकता पडऩे पर उचित कीटनाशी एवं कवकनाशी का उपयोग किया जाता हैं।
सिंघाड़ों की जल्द से जल्द पकने वाली प्रजातियों की पहली तुड़ाई अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एवं अंतिम तुड़ाई 20 से 30 दिसम्बर की जाती है। इसी प्रकार देर से पकने वाली प्रजातियों की प्रथम तुड़ाई नवम्बर के प्रथम सप्ताह में एवं अंतिम तुड़ाई जनवरी के अंतिम सप्ताह तक की जा सकती हैं। सिंघाड़ा फसल में कुल 4 तुड़ाई की जाती है। सिंघाड़े तुड़ाई पूर्ण रूप से विकसित और पके फलों की ही करना चाहिए, कच्चे फलों की तुड़ाई करने पर गोटी छोटी बनती है एवं उपज भी कम प्राप्त है।
रोपाई के पूर्व या एक सप्ताह के अंदर 300 किलोग्राम सुपर फॅास्फेट 60 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर मिलाएं साथ ही गोबर की सड़ी खाद का उपयोग अवश्य करें। इसके उपरांत रोपाई के पूर्व रोपणी को इमीडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस. एल. के घोल में 15 मिनट तक डुबोकर उपचारित किया जाता है। उपचारित बेल एक मीटर लंबी 2-3 बेलों की गठान लगाकर 131 मीटर के अन्तराल पर अंगूठे की सहायता से कीचड़ में गड़ाकर किया जाता है। रोपाई का कार्य जुलाई के प्रथम सप्ताह से 15 अगस्त के पहले तक किया जा सकता है।
सिंघाड़े की फसल में खरपतवार नियंत्रण की बहुत जरूरत होती हैं। इसमें रोपाई से पहले और बाद भी खरपतवार नियंत्रण करते रहना चाहिए। इसकी खेती में कीट एवं रोगों की हमेशा ध्यान रखें, प्रारंभिक अवस्था में प्रकोपित पत्तियों को तोडक़र नष्ट करें ताकि कीट एवं रोग नाशियों का उपयोग न करना पड़े। यदि आवश्यकता हो तो उचित दवा का उपयोग करें। सिघाड़े की खेती में की बिमारियां बहुत लगती हैं जिन्हें अगर समय रहते न पहचाना जाए तो पूरी फसल खराब हो जाती है। इसमें कीड़ें भी बहुत लगते हैं, जो पौधें को धीरे धीरे खा-खा कर खोखला कर देते हैं। अन्य फसलों के मुकाबले में कीड़ों का खतरा सिंघाड़े की खेती को ज्यादा होता है क्योंकि इसमें रोग बहुत लगते हैं।
सिंघाड़ा फल जो अच्छी तरह से सूखे हो उनको सरोते या सिंघाड़ा छिलाई मशीन द्वारा छिला जाता है। इसके उपरांत एक से दो दिनों तक सूर्य की रोशनी में सुखाकर मोटी पॉलीथिन बैग में रखकर पैक कर दिया जाता है।
सिंघाड़े के पूर्ण रूप से पके फलों की गोटी बनाने के लिए सुखाया जाता है। फलों को पक्के खलिहान या पॉलीथिन में सुखाया जाता हैं। फलों को लगभग 15 दिन सुखाया जाता है एवं 2 सें 4 दिन के अंतराल पर फलों की उलट पलट की जाती है ताकि फल पूर्ण रूप से सूख सकें। किसानों को सिंघाड़े की कांटे वाली सिंघाड़े किस्मों का चुनाव खेती के लिए करें, ये किस्में अधिक उत्पादन देती है साथ ही इनकी गोटियों का आकार भी बड़ा होता है। खेतों में इसकी तुड़ाई आसानी से की जा सकती है।