यू चला था मैं अपने ही कदमों की आहट न सुन सका मैं,
रूठी हुई निदों को ढुढऩे की कोशिश करता रहा मैं,
ख्वाबों के टुटने का डर था इतना
आंखे ही न बंद कर सका मैं,
जले हुए अरमानों की खाक ढुढ़ता रहा मैं,
अरमानों की बची हुई कलियों की हिफाजत ही न कर सका मैं,
आ रूकी थी जिन्दगी एक ऐसे मोड़ पर,
फिर दुवारा चलने का ईरादा ही न कर सका मैं,
खुशियों की तलाश में चला जा रहा था जिन्दगी की राहों पर,
जख्मों से लडऩे की हिम्मत ही न कर सका मैं,
कोशिश तो बहुत की थी तुफानों के भवर से निकल जाने की,
टुटी हुई कस्ती से साहिल तक न पहुंच सका मैं,
गम की गहराईयों में यूं उतरता ही चला गया मैं,
न थी कोई उसकी मंझील ये न समझ सका मैं,