पिता के जाने के बाद
घर में कुछ भी नहीं बदला —
घड़ी अब भी चलती थी,
अलमारी में उनके कपड़े अब भी वैसे ही तह थे,
चाय अब भी उसी प्याले में उबलती थी,
और दीवार पर टँगी उनकी तस्वीर
अब भी ठीक उन्हें ही देखती थी
जैसे वो कभी गए ही नहीं।

पर फिर भी…
सब कुछ बदल गया था।

सबसे पहले
आसमान ने रंग बदल लिया।

वो नीला नहीं रहा।

अब वो बस एक बेरंग चादर है —
जिस पर न धूप ठहरती है,
न बादल बरसते हैं।
बस एक अजीब-सी सफ़ेदी फैली रहती है,
जैसे आँसू पोंछ देने के बाद
आँखें बस सूखकर रह गई हों।

पिता की मृत्यु कोई शोर नहीं थी,
वो एक धीमा विसर्जन था।

जैसे नदी से एक नाम खो जाए,
जैसे रोटी से कोई स्वाद चला जाए,
जैसे कमरे की हवा में कोई ख़ुशबू अब लौटकर न आए।

मैं रोज़ छत पर जाता हूँ —
जैसे कोई आहट ढूँढ रहा हो
किसी बहुत पुराने ख्वाब की।
वहाँ आकाश दिखता है,
पर नीला नहीं।

अब उसमें
कोई रंग नहीं रहता,
सिर्फ़ एक मौन लहराता है —
पिता का मौन।

अब जब सूरज निकलता है,
तो उजाला होता है,
पर रौशनी नहीं लगती।

अब जब बारिश आती है,
तो भीगता शरीर नहीं,
भीतर कुछ टपकता है —
एक पुरानी आवाज़,
एक थकी हुई हँसी,
एक “बेटा…”
जो अब कभी नहीं लौटेगा।